गुरुवार, 26 मई 2022

क्या कॉर्पोरेट या पूंजीवादी व्यवस्था हमें गरीब बनाए रखना चाहती है?

क्या कॉर्पोरेट या पूंजीवादी व्यवस्था हमें गरीब बनाए रखना चाहती है?
बहुत से लोगों का अभी भी मानना है कि पूंजीवाद हमारा शोषण करता है. अभी किसान आंदोलन में यह बात निकलकर और सामने आई अधिकतर किसान यह तर्क दे रहे थे कि हम पूंजीपतियों के हाथ में गिरवी रख दिए जाएंगे और वह हमारा शोषण कर लेंगे. जब यूरोप में औद्योगिक क्रांति की शुरुआत हुई थी नई नई फैक्टरीयां लगी थी उन दिनों यह माना जा सकता है कि मजदूरों का शोषण होता था। उनके काम के घंटे निश्चित नहीं थे, छुट्टियां नहीं थी, मजदूरी बहुत कम मिलती थी, स्वास्थ्य सुविधाओं का ख्याल नहीं था। उसी दौर में कार्ल मार्क्स आए और उन्होंने दुनिया की समस्याओं की जड़ को पूंजीवाद का दुष्परिणाम बताया एक पुस्तक लिखी दास कैपिटल और यह नारा दिया कि दुनिया के सारे मजदूर एक हो जाओ। उनका यह मानना था कि पूंजीवाद मज़दूरों के शोषण पर टिका हुआ है.
पूंजीवाद तो वहां से बहुत आगे निकल चुका है और अब वह उदारवाद बन चुका है। आज आप किसी भी बड़ी मल्टीनेशनल कंपनी में नौकरी करके देखिए जीवन की सारी सुख सुविधाएं उपलब्ध हैं। आपका नियोक्ता आपका हर तरह से ख्याल रखता है. लेकिन मार्क्स के अनुयाई वही हटके रह गए। वह आज भी सारी समस्याओं की जड़ कॉरपोरेट को ही मानते हैं। जब मार्क्स ने दास कैपिटल लिखी हो सकता है उन दिनों के परिपेक्ष में उनकी बातों में कुछ तथ्य हो सकता हो। उनके बाद पूरी दुनिया में मार्क्सवाद पर भी आधारित व्यवस्थाएं बनाई गई और पूंजीवाद पर भी लेकिन मार्क्सवादी व्यवस्था विफल हो गई क्योंकि वह मनुष्य के स्वाभाविक मनोविज्ञान के अनुकूल नहीं थी। आज पूंजीवादी व्यवस्था उदारवाद बनकर खूब फल फूल रही है।
अब उस प्रश्न का उत्तर की क्या पूंजीवाद हमें एक गरीब बनाए रखना चाहता है ?
 पूंजीवाद की बुनियाद उपभोक्तावाद पर टिकी है,  सफल उपभोक्ता वही है जिसके पास क्रय शक्ति है। जब भी आम आदमी के पास पैसा कम होता है तो सबसे ज्यादा चिंता उद्योग पतियों को ही होती है उनके कारखाने आम लोगों के उवभोग करने से ही चलते हैं जब लोगों के पास पैसा ही नहीं होगा तो वह समान क्या खरीदेंगे।
गरीबों के कल्याण की जितनी भी योजनाएं आती हैं उनके पीछे पूंजीवाद ही होता है आप सोचते हैं कि मनरेगा चलाकर सरकार मजदूरों के बारे में सोच रही हैं या उज्जवला में गैस देकर गरीबों की ही फिक्र की जा रही है। यह मुफ्त राशन बांट कर लोगों का सिर्फ लोगों का ही पेट भरा जा रहा है। इन सब कल्याणकारी योजनाओं के पीछे पूंजीपतियों जिन्हें हम आधुनिक भाषा में कॉर्पोरेट कहते हैं उनको पोषित करने वाली संस्थाओं का दबाव होता है। 
कि पैसा पीरामिड के वाटम पर जाना चाहिए तभी वहां से मांग पैदा होनी चाहिए, तभी आगे की व्यवस्था चलेगी। 
गांव कस्बे के किसी भी दुकानदार से पूछ लीजिए जिस साल उस क्षेत्र में बाढ़ सूखा या कोई ऐसी आपदा आती है जिससे कृषि उत्पादन प्रभावित होता है तो उन किसानों के साथ-साथ उन दुकानदारों की भी चिंता बढ़ जाती है क्योंकि उनकी आमदनी उन्हीं किसानों पर टिकी हुई है। इसलिए कोई भी पूंजीपति, उद्योगपति किसानों को गरीब रखना नहीं चाहता है क्योंकि उसकी सारी व्यवस्था उनकी क्रय शक्ति पर ही टिकी हुई है।
किसान कानून की वापसी पर मैं फिर कहूंगा और राजनीति जीत गई देश हार गया।

पंचगव्य यानी कि हमारे पूर्वजों का प्रोबियोटिक सप्लीमेंट


#पंचगव्य यानी कि हमारे पूर्वजों का प्रोबियोटिक सप्लीमेंट
इस पोस्ट को पढ़ने से पहले पहले की तीन पोस्ट जरूर पढ़ लें तब यह ज्यादा समझ में आएगा।
एलेना कोलन की जिस किताब का जिक्र किया है, उसको पढ़ने से पहले मैं कभी भी गोमूत्र और गोबर के प्रयोग के समर्थन में नहीं था। और आंतरिक प्रयोग या खाने पीने की बात करने वालों को तो मानसिक रोगी मानता था।
जो इस पोस्ट में वो लिखूंगा वह सीधे सीधे एलिना कोलन ने नहीं लिखा है क्योंकि उन्हें भारत की परंपराओं के बारे में शायद पता नही होगा अगर उन्हें यह बात पता होती तो शायद वह भी किताब में भी इसका जिक्र करती। लेकिन किताब को पढ़ने के बाद जो मेरे अंदर अंतर्दृष्टि उत्पन्न हुई उसके आधार पर मैं आपको पंचगव्य का विज्ञान समझाने जा रहा हूं।
जो लोग फ़ूड और न्यूट्रिशंस के बारे में जागरूक रहते हैं वह लोग जानते ही होंगे कि प्रोबायोटिक उत्पाद काफी चलन में है। जो लोग प्रोबायोटिक्स के बारे में नहीं जानते उन्हें बता दें कि प्रोबियोटिक ऐसे उत्पाद होते हैं जिनमें मनुष्य के लिए लाभदायक बैक्टीरिया पाए जाते हैं जैसे कि दही, श्रीखण्ड, सिरका,योगर्ट इत्यदि भी प्रोबियोटिक फ़ूड ही है। क्योंकि इनके उत्पादन में बैक्टीरिया का हाथ है। हम सब जानते हैं की दही में लैक्टोबेसिलस नामक जीवाणु होते हैं। पेट में लेक्टो एसिड बेसिलस के अतिरिक्त भी अनेकों फायदेमंद जीवाणु होते हैं आजकल इन सभी जीवाणुओं को दही में मिलाकर जो उत्पाद तैयार किया जाता है उसको प्रोबायोटिक योगर्ट नाम दिया गया है। 
प्रोबायोटिक उत्पादों का सेवन की सलाह पेट से जुड़ी तमाम बीमारियों में तो दी ही जाती है इसके अतिरिक्त भी कैंसर जैसी अनेकों असाध्य बीमारियों में भी इसके प्रयोग के लिए कहा जा रहा है।
कल दिल्ली के माल में कुछ प्रोडक्ट देख रहा था तो वहां पर स्किन योगर्ट भी रखा हुआ था यानी की त्वचा पर लगाने वाली क्रीम में योगर्ट। अब बाजार इस जानकारी का पूरा फायदा उठाने में लगा हुआ है। बाजार को फायदा उठाना ही चाहिए और मैं भी उठाऊंगा☺️☺️☺️. 
अब आप सोच रहे होंगे कि पंचगव्य प्रोबियोटिक सप्लीमेंट कैसे हो गया। पंचगव्य में गाय से जुड़ी पाँच चीज़े पढ़ती हैं। 1. गाय का दूध 2. गाय का दही 3. गाय का घी 4. गोमूत्र व 5. गाय के गोबर का अर्क। जीवाणुओं की वृद्धि के लिए एक माध्यम चाहिए होता है तो दूध एक सबसे अच्छा माध्यम है. दही में जीवाणु होते ही हैं और उसमें जब गौमूत्र व गोवर का अर्क मिलाते हैं तो गोबर के माध्यम से गाय आंतों में पाए जाने वाले जीवाणु व गौ मूत्र के मिनरल्स भी उसमें मिल जाते हैं। दूध जैसा माध्यम मिल जाने से यह अच्छी तरह विकसित हो जाते हैं। यह जीवाणु व दूध घी मिलकर पंचगव्य को एक बहुत ही अच्छा प्रोबायोटिक सप्लीमेंट बना देते हैं।
आज कल के माहौल में मैं पंचगव्य की सलाह नही दूँगा क्योंकि आज गायों का चारा प्राकृतिक नही रह गया है।
प्रोबायोटिक कैप्सूल्स व गोलियां भी आती हैं। जिसमें सभी लाभकारी बैक्टीरिया होते हैं। उनका सेवन कर भी आप प्रोबियोटिक का लाभ ले सकते हैं। न्यूट्रिवर्ल्ड के सभी साथियों को बताना चाहता हूं कि अपनी कंपनी में भी शीघ्र ही प्रोबियोटिक सप्लीमेंट भी उपलब्ध कराये जाएंगे।
#पंक्जगंगवार
#न्यूट्रिवर्ल्ड
#nutriworld

फेकल यानी कि मानव मल का ट्रांसप्लांटेशन


फेकल यानी कि मानव मल का ट्रांसप्लांटेशन
😊😊वैधानिक चेतावनी यह पोस्ट भोजन करते समय न पढ़े☺️☺️
हमारा खून एक दूसरे के काम में आ जाता है हमारा लीवर, हमारी किडनी तो खूब ही एक मनुष्य की दूसरे मनुष्य के लगाई जा रही हैं। यहां तक की अब तो हृदय तक का भी ट्रांसप्लांटेशन हो जाता है।
लेकिन आपने यह नहीं सुना होगा कि एक मनुष्य का मल दूसरे मनुष्य के काम आ रहा है या दूसरे मनुष्य के शरीर में चढ़ाया जा रहा है। जी हां वही मल जिसे हम पोट्टी बोलते हैं सुबह-सुबह जाकर टॉयलेट में निकाल कर आते हैं।
पिछली दो पोस्टों से इतना तो जान ही गए होंगे कि हमारी आँतों में बहुत सारे सूक्ष्म जीव रहते हैं जो हमारे शरीर के लिए जरूरी होते हैं। अगर हम का संतुलन बिगड़ जाए उनमें से कुछ खत्म हो जाए तो हमारा शरीर विभिन्न में बीमारियों से ग्रसित हो जाता है. ऐसी ही पेट दो बीमारियां हैं आईबीएस और अल्सरेटिव कोलाइटिस, आधुनिक चिकित्सा शास्त्र में इन दोनों को लाइलाज माना जाता है।
जब अमेरिका में रिसर्च की गई तो इन बीमारियों का संबंध भी गट माइक्रोबायोम अर्थात पेट में आश्रय पाने वाले सूक्ष्म जीवों से निकला।
हम जो मल त्यागते हैं उस मल में भी वही सूक्ष्म जीवाणु होते हैं जो हमारी आँतों में पाए जाते हैं।
वैज्ञानिकों ने विचार किया क्यों ना किसी स्वस्थ व्यक्ति का मल बीमार व्यक्ति की आंतों में पहुंचा दिया जाए जिससे स्वस्थ करने वाले सूक्ष्म जीव वहां पनप जाएंगे और व्यक्ति स्वस्थ हो जाएगा। जब यह प्रयोग किया गया तब यह सफल पाया गया। बाद में अमेरिकी सरकार की नियामक एजेंसी ने भी इस इलाज को मान्यता दे दी। इस प्रक्रिया को करने के लिये ऐसा फेकल डोनर ढूंढा जाता है जिसने अपने जीवन में कभी भी एंटीबायोटिक्स का प्रयोग ना किया हो। एंटीबायोटिक्स हमारे लिए जीवन रक्षक तो हैं लेकिन इनका बिना सोचे समझे अंधाधुंध प्रयोग हमारी कई समस्याओं का कारण भी है। हालांकि आज की पोस्ट इस विषय पर नहीं है इस पर फिर कभी बात होगी।
ऐसा नहीं है कि मानव मल का इलाज में प्रयोग अमेरिका में पहली बार किया गया है। इससे पहले चीन की चिकित्सा पद्धति में भी इसका प्रयोग देखने को मिलता है वहां यदि किसी व्यक्ति का दस्त ठीक नहीं हो रहे होते तो अंत में उसे मानव मल घोलकर पिलाया जाता था और इससे परिणाम मिल जाते थे। यह वहाँ के चिकित्सा शास्त्र की बाहरवीं शताब्दी में लिखी पुस्तकों में इसका जिक्र है। पिछली शताब्दी तक वहाँ के पारंपरिक चिकित्सक इसका प्रयोग करते रहे हैं। प्रकृति में यह दस्त ठीक करने का तरीका चिम्पैंजियों में भी देखा गया है। दस्त लगने पर वे अपने स्वस्थ साथी का मल खाकर ठीक होते हैं। लेकिन वे इसका प्रयोग दस्त लगने पर ही करते हैं सामान्य अवस्था मे नहीं।
इस पोस्ट को पढ़कर जो भी सवाल मन मे आ रहे हो जरूर रखें।



जब ऊंट का गोबर खा कर जर्मन सेना की बची जान औऱ गोबर का विज्ञान


जब ऊंट का गोबर खा कर जर्मन सेना की बची जान औऱ गोबर का विज्ञान
गाय के गोबर से जुड़ी बहस तो आप अक्सर सोशल मीडिया पर देखते ही रहते हैं लेकिन मैं एक आपको ऐसा किस्सा बताने जा रहा हूं जिसमें जर्मन सेना को अपनी जान बचाने के लिए ऊंट का मल खाना पड़ गया था।
बात द्वितीय विश्व युद्ध की है, यानी कि 1945 के आस पास की अफ्रीका के फ्रंट पर जर्मन सेना थी और जर्मन सेना को लग गए थे दस्त। आजकल भी हम लोगों का अगर पेट खराब होता है तो उस दिन घर से बाहर निकलना उचित नहीं समझते हैं और अंदाजा लगाइए जब पूरी सेना को दस्त लग गए हो तो वह क्या करेगी क्या खाक युद्ध लड़ेगी। आप लोग सोच रहे होंगे कि दस्त लग गए तो कौन सी बड़ी बात एक एक गोली मेट्रोजिल लोमाप्राइड की या नारफ्लाक्सासिन, टिनडिनडाज़ोल की खा लेते हैं तो सही हो जाते हैं, एक ही खुराख में सब ठीक।
लेकिन उस समय इतना आसान नहीं था।
उस समय तक पहली एंटीबायोटिक पेन्सिलिन की खोज तो हो चुकी थी लेकिन उसका औद्योगिक निर्माण शुरू नहीं हो पाया था। जर्मन सैनिक जितने तरीके दस्त बंद करने के जानते थे वह सब अजमा लिए लेकिन दस्त बंद होने का नाम ही ना लें तो उस समय वहां के लोकल लोगों मूल निवासियों को बुलाया गया और पूछा गया जब आपको दस्त लगते हैं तब आप क्या करते हो तो उन्होंने कहा हम लोग ऊंट का गोबर खा लेते हैं। लेकिन शर्त यह है कि गोबर ताजा होना चाहिए। जर्मन सेना को अपने दस्त बंद करने थे तो उनके पास कोई चारा ना था सेना को ऊंट का गोबर खाना बना गोबर खाने से उनके दस्त बंद हो गए।
इसके पीछे क्या विज्ञान था उस समय न तो वे अफ्रीकी लोग जानते थे और ना ही जर्मन सेना। पर जान बचती है तो गोबर में ही क्या बुराई है।
आज विज्ञान ने जो खोज की वो मैं आपको बताता हूँ। विज्ञान यह नहीं मानता कि हमें किसी ईश्वर ने बनाया है विज्ञान कहता है कि हमारा विकास हुआ है एक कोशिकीय जीव से मानवता तक। हमारे शरीर में पूर्व के सभी जीवनों के अंश मौजूद हैं और सबसे अधिक मात्रा में तो एक कोशिकीय सूक्ष्म जीव।
हम सब जानते ही हैं दस्त लगने के अधिकांश मामलों में कारण कोई बाहरी इंफेक्शन होता है किसी ऐसे सूक्ष्मजीव का इन्फेक्शन जो आँतों में जाकर वहाँ रहने वाले सूक्ष्मजीवों को नष्ट कर देता है या फिर उनका बैलेंस बिगाड़ देता है शरीर उस नुकसानदेह सूक्ष्म जीव से पीछा छुड़ाना जात चाहता है इसलिए वह बार-बार लूज मोशन करके बाहर निकालता है। घर पर होते हैं तो हम दही या छाछ पी लेते हैं और इससे हमें फायदा भी मिल जाता है। इस फायदे का  कारण भी सूक्ष्म जीव है। जो जीवाणु दही में होते हैं वही हमारी आँतों में भी होते हैं। दही के जीवाणु जाकर आंतों के खतरनाक जीवाणुओं को खत्म कर देते है।
इंसानों का विकास हरबी बोरस यानी घास फूस खाने वाले जंतुओं से हुआ है। तो जो बैक्टीरिया घास चरने वाले पशुओं की आंतों में होते हैं वही जीवाणु हमारी आँतों में भी होते हैं।
 दूध निकालना दही बनाना आदमी ने बहुत बाद में सीखा होगा आप सोचिए जब आदिमानव जंगलों में रहता होगा उसको दस्त लगते होंगे तो वह क्या करता होगा। उसे यह प्रकृति ने ज्ञान दिया था कि यह जो जानवरों का गोबर है तुम खाओगे तो तुम्हारे दस्त ठीक हो जाएंगे आपने कुत्तों को भी कभी कभार गाय भैंस का गोबर या घोड़े की लीद खाते हुए देखा होगा यह भी उसी प्रक्रिया का अंग है।
आज प्रोबियोटिक फूड, सप्लीमेंट्स जाने क्या-क्या बाजार में आ गया है पर दुनिया का सबसे पुराना प्रोबायोटिक अगर कुछ है तो है इन जानवरों का ताजा गोबर। आज भी कुछ इंसान गाय के गोबर के प्रेमी हैं तो उसका कारण ऊपर से भले ही देखने मे धार्मिक लगे किंतु यह हमारी वही बेसिक इंस्टिंक्ट है जो प्रकृति ने हमें हमारे सर्वाइवल के लिए दी है। 
भारत के लोगों को गाय के गोबर को खाने की इंस्टिंक्ट दी है क्योंकि यहाँ गाय होती है और अरब और अफ्रीका वालों को ऊँट का गोबर क्योंकि वहाँ ऊँट होता है।
तो आप समझ ही गए होंगे कि ऊंट के गोबर ने जर्मन सेना के लिए क्या काम किया था। एक तरह से यह प्रोबायोटिक फूड था उसके गुड बैक्टीरिया ने जर्मन सैनिकों की आँतों में जाकर दस्त लगने वाले खराब बैक्टीरिया को बाहर कर दिया था। और वे दस्तों से मुक्त हो गए थे।

गट माइक्रो बायोम

पोस्ट - 1 सूक्ष्म जीवों का रहष्य
हिंदी में ज्ञान-विज्ञान पर लिखी हुई अच्छी पुस्तकों का अभाव है। हिंदी में इंटरनेट पर भी अच्छे ज्ञान का अभाव है। मुझे इसके दो कारण लगते हैं पहला यह कि हिंदी में कोई भी मौलिक शोध नही हो रहा है, और दूसरा यह कि मेरे जैसे लोग अंग्रेजी और हिंदी दोनों भाषाएं जानते हैं औऱ अंग्रेजी में नया ज्ञान विज्ञान पढ़ते भी हैं। वे अपने आलस के कारण अंग्रेजी से लिया ज्ञान हिंदी के पाठकों तक नहीं पहुंचा रहे हैं। पिछले लॉकडाउन में मैंने कई अच्छी पुस्तकें स्वास्थ्य विज्ञान पर पढ़ी हैं। मुझे लगता है कि उनसे जो कुछ भी मैंने जाना है वह आप तक पहुंच जाए तो मेरा पढ़ना सार्थक हो जाएगा।
ऐसी ही एक किताब प्रसिद्ध माइक्रो बायोलॉजिस्ट एलेना कोलन की "10% ह्यूमन" पढ़ी थी उसको पढ़ कर मेरे दिमाग के सोचने का तरीका ही बदल गया। काफी दिनों से सोच रहा था कि आपको इस ज्ञान के बारे में बताया जाए। एक पोस्ट में नही आएगा ऐसे ही एक एक टॉपिक पर मूड बनता रहा तो लिखता रहूंगा।
इस किताब में एलेना कोलन ने बताया है कि हम सिर्फ 10% ही इंसान हैं बाकी 90% बैक्टीरिया वायरस फंगस आदि सूक्ष्मजीव से बने हैं। आप सब ने नब्बे के दशक में जब ह्यूमन जीनोम प्रोजेक्ट शुरू हुआ था उसके बारे में मीडिया में काफी पढ़ा होगा कि किस तरह उस समय दावे किए जा रहे थे कि हम अब डिजाइनर बेबी बना सकेंगे और इंसानों से जुड़े तमाम तरह के रहस्य खुल जाएंगे। इस प्रोजेक्ट में जब जींस के बारे में पता लगाया जा रहा था तो वैज्ञानिकों को आश्चर्य हुआ की हम इंसानों में 22,000 के आस-पास ही जींस हैं। जबकि एक फल की मक्खी में 25000 और एक धान के पौधे में 42000 के आसपास जींस होते हैं। जब यह पता चला तो हम इंसानो के अहंकार को बहुत ठेस पहुंची कि हम इंसान हमारे अंदर की क्रिया प्रणाली इतनी कांप्लेक्स है फिर भी हमारा काम इतने कम जींस से कैसे चल रहा है। तो आगे रिसर्च की गई तो पता चला कि हमारे शरीर में दो लाख के आसपास जींस काम करते हैं। जो लोग जीन्स को नही समझते हैं उन्हें बता दूं की जींस एक तरह के ब्लूप्रिंट होते हैं और हमारे शरीर की कोशिकाओं में होते हैं यही कोशिकाओं को बताते हैं कि किस चीज़ का शरीर मे निर्माण करना है। हमारा गोरा काला, लंबा नाटा, मोटा पतला, बुद्धिमान, मूर्ख काफी हद तक जींस पर ही निर्भर करता है।
हमारे शरीर मे 2 लाख जींस काम कर रहे हैं क्योंकि इंसान जैसी कॉम्प्लेक्स संरचना का इससे कम में काम भी नही चलेगा। पर इन 2 लाख में से 10% ही हमारे हैं बाकी 90% जींस उन सूक्ष्मजीवों के हैं जो हमारे शरीर में आश्रय लिए हुए हैं। ह्यूमन जीनोम की गुत्थी जितनी सुलझनी थी उससे ज्यादा उलझ रही थी। फिर वैज्ञानिकों को लगा कि इस पर और रिसर्च की जरूरत है। अमेरिकी सरकार ने ह्यूमन जीनोम के बाद ह्यूमन बायोम प्रोजेक्ट की शुरुआत की। आज जो नई जानकारी ह्यूमन बायोम के बारे में सामने आ रही है वह सब इस प्रोजेक्ट का ही परिणाम है।
तो बात हो रही थी हमारे शरीर मे रहने वाले सूक्ष्म जीवों की। इसमें हम दोनों का स्वार्थ छिपा है हम उन्हें संरक्षण और भोजन देते हैं बदले में हमारे लिए काम करते हैं। और ऐसा भी नहीं है कि वह हमारे लिए कोई कम महत्वपूर्ण कार्य कर रहे हैं वह हमारे लिए सबसे महत्वपूर्ण कार्य कर रहे होते हैं जैसे विभिन्न हारमोंस का बनाना विभिन्न विटामिनों व प्रोटीन का संश्लेषण करना, भोजन का पाचन करना इत्यादि, यहां तक कि जो हमारे दिमाग के लिए सबसे महत्वपूर्ण हार्मोन सेरेटोनिन है वह भी हमारी आंतों में स्थित जीवाणु ही बनाते हैं।
हम लोग सूक्ष्म जीवों को दुश्मन ही ज्यादा समझते आये हैं क्योंकि जब भी कोई नई बीमारी आती है तो उसके पीछे इन्हीं में से किसी का नाम लिया जाता है। पर दुश्मन माइक्रोब यानी कि सूक्ष्म जीवों की संख्या बहुत ही कम है, दोस्त ज्यादा है पर चंद बुरे सूक्ष्म जीवों के चक्कर मे पूरी कौम को ही अपना दुश्मन मान बैठे हैं। तभी तो हम एंटीबायोटिक, साबुन, फिनाइल, सेनेटाइजर और पता नही कौन कौन से क्लीनर इस्तेमाल कर इन्हें मारने पर तुले रहते हैं। इस पुस्तक में सूक्ष्म जीवों से जुड़े अनेको ऐसे रहस्य हैं जो प्रचलित मान्यता के अनुकूल नही हैं। पर यह बातें विज्ञान की खोजो के बाद ही पता चलीं है इसलिए मानना तो पड़ेगा ही।
अगर आप सबका प्रोत्साहन मिलेगा तो मैं अपनी पोस्ट की इस सीरीज में आपको इन सूक्ष्मजीवों से जुड़े हुए रहस्य के बारे में बताता रहूंगा जो कि मैंने इन पुस्तकों में पढ़े हैं।
#पंकजगंगवार 
#न्यूट्रिवर्ल्ड

उपवास का विज्ञान

इसबार एक सैंयोग हुआ है नवरात्रि और रमजान के उपवास एक साथ शुरू हुए हैं।
यूं तो सभी धर्मों में उपवास किसी न किसी रूप में होते हैं लेकिन जो धर्म भारत की धरती पर पैदा हुए हैं या कहें जिनका मूल सनातन धर्म है उसमें व्रत उपवास का कुछ ज्यादा ही महत्व है। अपने यहां अगर कोई सारे व्रत उपवास रखे तो साल के आधे दिन तो व्रत उपवास में ही निकल जाएंगे। कभी कोई एकादशी कभी अमावस्या तो कभी कोई चतुर्थी पता नहीं कितनें बहाने हैं हमारी संस्कृत में उपवास रखने के, और सनातन संस्कृति से जुड़े हुए धर्मों में सबसे ज्यादा व्रत रखते हैं जैनी लोग।
व्रत उपवास का जो भी धार्मिक महत्व होगा उसके बारे में तो मुझे ज्यादा नहीं पता भी नही है और इस पोस्ट यह उद्देश्य भी नही है, लेकिन व्रत उपवास किस तरह हमारे स्वास्थ्य के लिए आवश्यक हैं इनका शरीर पर क्या प्रभाव पड़ता है इसके बारे में मैं जरूर यहां चर्चा करूंगा।
पहले तो मैं यह बताऊंगा कि आखिर भारत की धरती पर ही इतने व्रत उपवास क्यों हैं इसका कारण मुझे जान पड़ता है कि हम प्राचीन समय से ही भरी पूरी खाई अघाइ सभ्यता रहे हैं।
इसका कारण भौगोलिक है अपने देश में हर तरह की जलवायु है। नदियों की उपजाऊ मिट्टी से बने मैंदान है। जिसमें हर तरह के अनाज, फल, सब्जियां आसानी से उग जाते हैं। प्राचीन समय में आबादी बहुत कम थी तो इतनी खाद्यान्न की समस्या ना थी। हमारी धरती यहां के लोग प्राचीन लोगों की भोजन की जरूरतों पूरा करने में सक्षम थी कोई भुखमरी नहीं थी। हमारी संस्कृति में उपवास इसलिए नहीं आया है कि कोई खाने पीने की कमी थी यहां उपवास भरे हुए पेट से पैदा हुए हैं। अपने यहां जैन लोग सबसे ज्यादा उपवास करते हैं तो इसका कारण यही है कि जैनी प्राचीन समय से ही समृद्ध रहे हैं क्योंकि उनके धार्मिक विस्वासों ने उन्हें खेती करने से रोक दिया तो वह सब व्यवसाय में आ गए और व्यवसायी आदमी हमेशा संपन्न होता ही है इसलिए जैनियों ने सबसे ज्यादा व्रत उपवास के बहाने ढूंढे हैं।
व्रत उपवास के फायदे आज पश्चिम का विज्ञान भी बता रहा है। वहां बाकायदा इस पर बड़ी-बड़ी किताबें लिखी जा रही हैं कि किस तरह व्रत उपवास किये जायें। वहां तरह-तरह की फास्टिंग की पद्धतियां बताई जा रही हैं। कई तरह की फास्टिंग चल रही है।
मजेदार बात यह है कि जितने भी तरीके वह बता रहे हैं वह सब हमारे यहां पहले से ही प्रचिलित हैं।
अपने यहां एक कहावत है कि तीन बार खाये रोगी, दो बार भोगी और एक बार खाए योगी।
आज अमेरिकन किताब लिख रहे हैं "हाउ टू ईट बंस ए डे" आज वह भी कह रहे हैं कि दिन में एक बार खाना ही ठीक है। पहले वह लोग कहते थे कि दिन भर थोड़ा-थोड़ा खाते रहना चाहिए लेकिन आज वह कह रहे हैं कि नहीं जितना खाना है एक बार में खा लो ज्यादा से ज्यादा दो बार में खा लो बाकी समय खाली रखो पेट को और बाकायदा इसके पीछे उनकी रिसर्च है विज्ञान है।
आज विज्ञान कह रहा है कि हम लोग जितनी ज्यादा मात्रा में भोजन खा रहे हैं हम इतना खाने के लिए डिजाइन ही नहीं हुए हैं। हमारे पूर्वज जो जंगलों में रहते थे उनके लिए इतना भोजन हर समय उपलब्ध नहीं था इसलिए कई कई दिन उन्हें भूखा रहना पड़ता था। उसी हिसाब से हमारा शरीर डिजाइन है। लेकिन आज हर समय भोजन उपलब्ध है आज ज्यादा खाना ही हमारी स्वास्थ्य संबंधित समस्याओं का कारण है आज डायबिटीज ब्लड प्रेशर, ह्रदय के रोग, पेट की समस्याएं इसके पीछे हमारा ज्यादा भोजन करना ही है।
इसलिए आप स्वस्थ रहना चाहते हो तो अपने पूर्वजों की तरह बीच में एक-एक दिन भूखा रहना शुरू करो।
हम सब जानते हैं हमारे शरीर को ऊर्जा कार्बोहाइड्रेट से मिलती हैं और जब यह ऊर्जा शरीर में ज्यादा हो जाती है तो ग्लाइकोजन के रूप में लिवर में इकठ्ठा हो जाती है। अगर इसके  उपयोग की नौबत नही आती तो शरीर इसको बसा के रूप में इकट्ठा कर लेता है। यह ऐसा ही है जब हमारे घर में ज्यादा भोजन आ जाता है तो हम उस भोजन को उठाकर अपने फ्रिज में रख देते हैं। लेकिन यदि हमारे घर में लगातार इतना ज्यादा भोजन आता रहे औऱ हमारे फ्रिज भी भर जाए, तो हम उसका प्रसंकरण कर घर मे इक्कट्ठा करेंगे। लेकिन हमारे परिवार को इस अतिरिक्त संरक्षित किये गए भोजन की जरूरत ही ना पड़े। तो क्या होगा यह भोजन खराब होने लगेगा। हमारे घर मे भी दुर्गन्ध फैलने लगेगी। यही हमारे शरीर में हो रहा है। हमारे लिवर में जमा ग्लाइकोजन और शरीर में जमा वसा उन दिनों के लिए होती हैं जब हमें कोई भोजन नहीं मिलता तो हमारा शरीर उससे ही काम चलाता है. 
जब हमें कमसे कम 12 घंटे से अधिक कोई भोजन नहीं मिलता है तब शरीर इस जमा स्टॉक में से ऊर्जा लेने लगता है, यानी कि वसा टूटनी शुरू हो जाती है। इस प्रक्रिया को कीटॉसिस बोलते हैं इसलिए 24 घंटे का उपवास रखने को कहा जाता है। आजकल एक पद्धति और भी लोकप्रिय हो रही है कि अगर हम रोज अपने पेट को 16 घंटे खाली रखें तब भी हम उपवास का फायदा ले सकते हैं। इसको इंटरमिटेंट फास्टिंग कहा गया है, यानी कि एक बार में लंबा उपवास ना करके बीच-बीच में छोटे छोटे उपवास करना। 
रमजान भी एक तरह की इंटरमिटेंट फास्टिंग है, शायद अभी यह 12 घण्टे की फास्टिंग है लेकिन यदि इसको 16 घंटे खींचा जा सकता तो यह स्वास्थ्य के लिहाज से ज्यादा कारगर हो जाएगी। क्योंकि 12 घण्टे में कीटोसिस सिर्फ स्टार्ट ही होती है, 4 अतिरिक्त घण्टे मिलने से कीटोसिस और फ़ास्ट हो जाएगी।
 धर्मों को इस प्रक्रिया की जानकारी थी इसलिए धर्मों ने व्रत और उपवास बनाए मैं यह नहीं कहता।
 मेरे लिए यह किसी संगठित धर्म से जुड़ी हुई बात भी नहीं है मेरे लिए उपवास की समझ आदिम मनुष्य का प्रकृति से तालमेल से विकसित हुई है। समय के साथ साथ उनको धार्मिक कर्मकांडों से जोड़ दिया गया ताकि लोग उसका नियम से पालन करते रहें. मैंने कहीं पढ़ा है कि अरब में रमजान इस्लाम के आने से पूर्व से ही चलता रहा है। यह वहां की आदिम संस्कृति का हिस्सा है ना कि सिर्फ इस्लामिक संस्कृति का रमजान अरब की जलवायु के हिसाब से ज्यादा डिज़ाइन है क्योंकि अरब में दिन अत्यधिक गर्म होते हैं और रातें आरामदायक और ठंडी ऐसे में दिन में उपवास करना और आराम करना ज्यादा सुविधाजनक है।
 भारत में मौसम तेजी से बदलते हैं नवरात्रि वर्ष में दो बार आते हैं एक बार जब सर्दियां खत्म हो चुकी होती हैं जब हम गर्मी का स्वागत कर रहे होते हैं और दूसरी बार जब बरसात खत्म हो चुकी होती है हम सर्दियों के आगमन का स्वागत कर रहे होते हैं दोनों ही समय दो ऋतुओं का संधिकाल हैं। मौसम बदलने से शरीर में भी तेजी से परिवर्तन होते हैं। आप सब जानते हैं जब मौसम बदलता है तो हम सभी को समस्याएं होने लगती हैं तो ऐसे समय में ही नवरात्रि आती है ताकि हम अपने शरीर की शुद्धि कर सकें उसको आने वाली ऋतु के लिए तैयार कर सकें। 
 मनुष्य तो मनुष्य मैंने पशुओं को भी उपवास करते हुए देखा है घर के कुत्ते भी बीच-बीच में एक आद दिन खाना नहीं खाते हैं। कोई भी पशु बीमार होने पर सबसे पहले भोजन छोड़ता है ताकि उसकी अंदर की उर्जा उसके शरीर को सही करने में प्रयोग आये।
हम लोग अभी तक यह सुनते हैं कि पानी पीना शरीर के लिए अच्छा होता है जितना ज्यादा पानी पिएंगे उतना ही शरीर स्वस्थ रहेगा लेकिन नई रिसर्च यह बता रही है कि जिन चूहों को कम पानी दिया गया उनकी उम्र उन तो चूहों की तुलना में ज्यादा हुई  जिन्हें पर्याप्त मात्रा में पानी दिया गया था।वैज्ञानिक आज कह रहे हैं कि हमें कुछ दिन बिना पानी के भी रहना चाहिए इसलिए ही हमारी संस्कृति में बहुत से उपवास निर्जला है।
आज की जीवनशैली में शायद ही ऐसा कोई दिन होता है जिस दिन हमें भोजन ना मिलता हो।
तो ऐसे में यह तीज त्यौहार  व्रत या रोजा रखने के अच्छे बहाने हैं धार्मिक कारणों से ना सही स्वास्थ्य कारणों से ही आप यह उपवास या रोजा रखिए। लेकिन उपवास को उपवास की तरह रखिए ना कि उपवास के नाम पर दिनभर तरह-तरह की चीजें खाते रहे।

फलों और सब्जियों की धुलाई यानी कि बी12 की सफाई

फलों और सब्जियों की धुलाई यानी कि बी12 की सफाई
उस दिन जब बच्चियों को शहतूत पेड़ से तोड़कर खिला रहा था तो बच्चों ने मना कर दिया कि डैडी हम अभी नहीं खाएंगे, मैंने पूछा क्यों तो उन्होंने कहा कि डैडी यह गंदे हैं इन्हें तोड़ कर घर ले चलो वहां धोकर खाएंगे। लेकिन मैं चाहता था कि वे इन्हें धो कर न खायें, लेकिन क्यों जानिए इस पोस्ट में।
हम सब अपने घर में बच्चों को यही सिखाते हैं कि बाजार से लाने वाले फल और सब्जियों को अच्छे से धो कर ही प्रयोग करना चाहिए। आज के माहौल के हिसाब से ही सही ही है क्योंकि इतने कीटनाशकों व रसायनों का प्रयोग किया जाता है अगर उन्हें धोया नहीं जाएगा तो कीटनाशकों के अंश भी हमारे शरीर के अंदर चले जाएंगे। लेकिन मैं यहां आपको एक और बात बताने जा रहा हूं आजकल अगर आप किसी का विटामिन का स्तर चेक कराएं तो उसमें सबसे ज्यादा कमी विटामिन डी और विटामिन B12 की होती है विटामिन डी के बारे में मैं पोस्ट लिखी चुका हूं, लेकिन आज विटामिन B12 की बात करेंगे। हम शाकाहारी लोगों को बताया जाता है की विटामिन बी12 शाकाहार में नहीं होता इसलिए हमारे अंदर कमी हो जाती है। हमें विटामिन B12 लेने के लिए डेयरी उत्पाद जैसे दूध और अंडे या फिर मांस खाने के लिए कहा जाता है।
लेकिन प्रश्न यह खड़ा होता है कि यदि शाकाहार में विटामिन B12 नहीं है तो उन पशुओं के अंदर विटामिन बी12 कहां से आता है जो सिर्फ शाकाहार ही करते हैं और उसके बाद हमें दूध और मांस प्रदान करते हैं।
विटामिन B12 प्रकृति में पाए जाने वाले कई प्रकार के बैक्टीरिया बनाते हैं जो धूल मिट्टी व नदियों झरनों के पानी में पाए जाते हैं। ये बैक्टरिया कोबाल्ट नामक तत्व से मिलकर बी 12 बनाते हैं। यह बैक्टीरिया हमारी व अन्य पशुओं की बड़ी आँत यानी कोलन में भी होते हैं और यह वहां भी बी 12 बनाते हैं। लेकिन वह बी12 हमारे शरीर मे अवशोषित नही हो पाती मल के साथ बाहर निकल जाती है।यह हमारी छोटी आंत में ही अवशोषित होकर हमें मिल सकती है। घास पर, फल-सब्जियों पर जो धूल मिट्टी जमी होती है वे उसमें भी एह पाई जाती है, जब पशु उस घास को खाते हैं और प्राकृतिक श्रोत से पानी पीते हैं तो धूल के साथ-साथ यह विटामिन B12 भी शरीर मे पहुँच जाती हैं। और जब हम इनसे लिए उत्पाद दूध, मांस, अंडे इत्यादि का प्रयोग करते हैं तो हमे भी बी 12 मिल जाती है।
लेकिन मांसाहारी लोग ज्यादा खुश फहमी ना पालें कि उनके अंदर विटामिन B12 की कमी नहीं होगी क्योंकि आजकल पशुओं को भी कृत्रिम रूप से पाला जा रहा है उनको कृत्रिम वातावरण में रखा जाता है साफ पानी और चारा खाने को मिलता है। जिस कारण उनके अंदर भी विटामिन B12 की कमी हो जाती है। यदि पशुओं को कृत्रिम रूप से विटामिन बी 12 दी जा रही होती है तब इसमें कमी नहीं होती अन्यथा पशुओं में भी विटामिन B12 की कमी होने लगी है।
यदि हम शाकाहारी लोग भी फल सब्जियों पर लगी धूल के साथ उसे खाएं तो यह हमारे पेट में भी पहुंच जाएगी जैसे पशुओं के शरीर में पहुंचती है। 
 जब हम फल और सब्जियों को धोते हैं. तो उसके साथ विटामिन बी 12 भी धूल जाती है, और हम उससे वंचित रह जाते हैं।
 मैं यह नहीं कह रहा कि आप फल और सब्जियों को धोकर ना खाएं आज ही बहुत जरूरी है लेकिन मैंने आपको इसके पीछे का विज्ञान बता दिया यदि आपको कोई ऐसा पौधा या पेड़ मिले जिस पर कभी कीटनाशक आदि रसायनों का प्रयोग न किया गया हो तो आप उससे तोड़े हुए फल और सब्जी को बिना धोये निसंकोच खा सकते हैं।
 आप सोच रहे होंगे कि विटामिन B12 की कमी हो रही हो तो हो जाने दो साथियों यह बहुत महत्वपूर्ण विटामिन है इसकी कमी के कारण हमारा दिमाग, हमारी नर्व्स अच्छी तरह से काम नहीं करती यहां तक कि हमारे शरीर में खून भी सही से नहीं बन पाता। शरीर मे सुन्नपन, सुई की चुभन, समृति की कमी, डिप्रेसन, थकान आलास इत्यादि इसके लक्षण हैं। इसलिए इसका पूरा होना बहुत जरूरी है। यदि आपके शरीर में उपरोक्त तरह के लक्षण हैं तो एक बार विटामिन B12 लेकर जरूर देखें। इसको सप्लीमेंट फॉर्म में ले सकते हैं। यानी कि हमारे उत्पादों का सेवन करते रहे।☺️☺️☺️
 #पंकजगंगवार